Friday, 4 January 2019

दुःख का स्वाद - Flavour of Sadness

एक बार एक नवयुवक किसी संत के पास पहुंचा .और बोला
 “ महात्मा जी , मैं अपनी ज़िन्दगी से बहुत परेशान हूँ , कृपया इस परेशानी से निकलने का उपाय बताएं

संत बोले , “ पानी के ग्लास में एक मुट्ठी नमक डालो और उसे पीयो .”
युवक ने ऐसा ही किया .
“ इसका स्वाद कैसा लगा ?”, संत ने पुछा।
“ बहुत ही खराब … एकदम खारा .” – युवक थूकते हुए बोला .

संत मुस्कुराते हुए बोले , “एक बार फिर अपने हाथ में एक मुट्ठी नमक ले लो और मेरे पीछे -पीछे आओ .
“दोनों धीरे -धीरे आगे बढ़ने लगे और थोड़ी दूर जाकर स्वच्छ पानी से बनी एक झील के सामने रुक गए .

“ चलो , अब इस नमक को पानी में दाल दो .” ,संत ने निर्देश दिया। युवक ने ऐसा ही किया .

“ अब इस झील का पानी पियो .” , संत बोले
युवक पानी पीने लगा.

एक बार फिर संत ने पूछा ,: “ बताओ इसका स्वाद कैसा है , क्या अभी भी तुम्हे ये खारा लग रहा है ?”
“नहीं , ये तो मीठा है , बहुत अच्छा है ”, युवक बोला .

संत युवक के बगल में बैठ गए और उसका हाथ थामते हुए बोले , “ जीवन के दुःख बिलकुल नमक की तरह हैं ; न इससे कम ना ज्यादा .
जीवन में दुःख की मात्रा वही रहती है , बिलकुल वही . लेकिन हम कितने दुःख का स्वाद लेते हैं ये इस पर निर्भर करता है कि हम उसे किस पात्र में डाल रहे हैं .
इसलिए जब तुम दुखी हो तो सिर्फ इतना कर सकते हो कि खुद को बड़ा कर लो… ग्लास मत बने रहो झील बन जाओ .

Saturday, 29 September 2018

मन का जहर - Poison in Heart

नयी नवेली बहु अपने सास के साथ रोज के झगड़े से परेशान होती है |अपने पति को अलग रहने की बात करती हैं |लेकिन पति माँ की बीमारियों की कारन टाल देता हैं | 

बहु अपने पहचान के वैद्य के पास जाती है |और कहती हैं| "मुझे तकलीफ से बचाने के लिये आप मुझे कोई जहर दे दो " जिससे  मेरी सास मर जाये| 


मन  का जहर


बहुत सोच विचार के बाद कहते हैं की"मैं तुम्हे कुछ वनस्पति देता हूँ |

उसे रोज अपने सास के खाने में मिला देना लेकिन सास को इसका गुमान नहीं होना चाहिये| उनके लिये उनका स्वादिष्ट भोजन बनाना | उनकी अच्छी से सेवा करना| वोह कुछ भी बोले तुम अपने मन का नियंत्रण नहीं खोना |  

जहर का असर धीरे-धीरे होगा और तुम पैर कोई शक नहीं होगा| 

बहु ने अपना काम चालू किया|सास के झगड़े को नजरअंदाज करने लगी|दीर्घकालीन लोभ के चलते बहु चुपचाप रहती | 

वैद्य के कहनेनुसार बहु सास का मन जितने के लिये हर कोशिस करती|इसतरह छः मास गुजर जाते हैं और उसे क्रोध पर नियंत्रण रखने की आदत हो गयी | 
सास भी अपना गुस्सा त्याग कर बहु को बेटी समान पेश आने लगी | 

सास अपने बहु के लिये अच्छे गुणगान करने लगी | 

बहु वैद्य के पास जाकर कहने लगी|मेरी सास मेरी माँ बन गयी | वोह जाने नहीं चाहिये|जहर का असर निकलने के लिये  कुछ वनस्पति दे दो | 

वैद्यने कहा "जहर तो तुम्हारे मन में था | वोह तो निकल गया | 



Friday, 24 August 2018

दान का महत्व - Importance of Donation


एक लकड़हारा रात-दिन लकड़ियां काटता, मगर कठोर परिश्रम के बावजूद उसे आधा पेट भोजन ही मिल पाता था।

एक दिन उसकी मुलाकात एक साधु से हुई। लकड़हारे ने साधु से कहा कि जब भी आपकी प्रभु से मुलाकात हो जाए, मेरी एक फरियाद उनके सामने रखना और मेरे कष्ट का कारण पूछना।

कुछ दिनों बाद उसे वह साधु फिर मिला।
लकड़हारे ने उसे अपनी फरियाद की याद दिलाई तो साधु ने कहा कि- "प्रभु ने बताया हैं कि लकड़हारे की आयु 60 वर्ष हैं और उसके भाग्य में पूरे जीवन के लिए सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं। इसलिए प्रभु उसे थोड़ा अनाज ही देते हैं ताकि वह 60 वर्ष तक जीवित रह सके।"


समय बीता। साधु उस लकड़हारे को फिर मिला तो लकड़हारे ने कहा !
"ऋषिवर...!! अब जब भी आपकी प्रभु से बात हो तो मेरी यह फरियाद उन तक पहुँचा देना कि वह मेरे जीवन का सारा अनाज एक साथ दे दें, ताकि कम से कम एक दिन तो मैं भरपेट भोजन कर सकूं।"
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अगले दिन साधु ने कुछ ऐसा किया कि लकड़हारे के घर ढ़ेर सारा अनाज पहुँच गया। 
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लकड़हारे ने समझा कि प्रभु ने उसकी फरियाद कबूल कर उसे उसका सारा हिस्सा भेज दिया हैं।
उसने बिना कल की चिंता किए, सारे अनाज का भोजन बनाकर फकीरों और भूखों को खिला दिया और खुद भी भरपेट खाया।
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लेकिन अगली सुबह उठने पर उसने देखा कि उतना ही अनाज उसके घर फिर पहुंच गया हैं। उसने फिर गरीबों को खिला दिया। फिर उसका भंडार भर गया।

यह सिलसिला रोज-रोज चल पड़ा और लकड़हारा लकड़ियां काटने की जगह गरीबों को खाना खिलाने में व्यस्त रहने लगा।

कुछ दिन बाद वह साधु फिर लकड़हारे को मिला तो लकड़हारे ने कहा---"ऋषिवर ! आप तो कहते थे कि मेरे जीवन में सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं, लेकिन अब तो हर दिन मेरे घर पाँच बोरी अनाज आ जाता हैं।"

साधु ने समझाया, "तुमने अपने जीवन की परवाह ना करते हुए अपने हिस्से का अनाज गरीब व भूखों को खिला दिया।
इसीलिए प्रभु अब उन गरीबों के हिस्से का अनाज तुम्हें दे रहे हैं।"

किसी को भी कुछ भी देने की शक्ति हम में है ही नहीं, हम देते वक्त ये सोचते हैं, की जिसको कुछ दिया तो ये मैंने दिया!
दान, वस्तु, ज्ञान, यहाँ तक की अपने बच्चों को भी कुछ देते दिलाते हैं, तो कहते हैं मैंने दिलाया ।
हम कुछ नहीं देते !! वह उनके  नसीब का होता हैं!!!