Wednesday, 2 December 2015

गुरुगोविंदसिंग के विचार

गुरुगोविंदसिंग  इनके शिष्यो ने गुरु को स्वीकृति  माँगी "दुर्गादेवी के प्रत्यक्ष साक्षात्कार होने हेतु  यज्ञ करना हैं।  "  गुरुने  समर्थन दे दिया। 


दुर्गास्तमि के दिन  महायज्ञ  सुरु हो गया।  बहुत  सारी  लागत ,वक़्त,
मनुष्य शक्ति, सामान खर्च  हो  रही थी।  ऐसे ही  एक साल हो गया। 

दूसरी  दुर्गास्तमि आयी फिर  भी महायज्ञ शुरू था।  महायज्ञ संपन्न होने का नाम ही ले रहा था। दुर्गामाता प्रसन्न नहीं हो रही थी। 

अब  गुरुगोविंदसिंग जी ने महायज्ञ करने वाले पुजारी से पुछा "दुर्गामाता का प्रत्यक्ष साक्षात्कार कब होगा? झूठे  पुजारी ने कहा "गुरुदेव ,अगर किसी ख़ानदानी घराने से शुद्ध पवित्र व्यक्ति का बलि माता के चरणो पे दिया तो माता जरूर दर्शन देगी। 


"पंडितजी, तो फिर इसलिए आप से अधिक  पवित्र ,योग्य व्यक्ति कोई नहीं होगा?" इतना कहकर गुरुनी अपने शिष्योको बोले "पकड़ो ,उसको और महायज्ञकुंड के अग्नि में  डाल दो। "

पुजारी डर के मारे क्षमा याचना  करने लगा " फिर से ऐसे नहीं करूँगा ,छोड़ो ,मुझे। "
क्षमाशिल गुरुगोविंदसिंग जी ने उदार मन से उसे माफ़ किया। यह सब उनके शिष्यो ने देखा। भयभीत हुये अपने शिष्यो को बोले "ऐसे  सब अंध:श्रद्धा से देवी का  दर्शन नहीं होता। " सच ही में दुर्गामाता ,तुम्हारे पास ही है। वह तुम्हारे हृदय में हैं। 
भगवान हमारे हृदय में रहते हैं।

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